Samir Saran
सीपीईसी न केवल ‘परस्पर सम्मान’ के पंचशील के महान सिद्धांत की धज्जियां उड़ाएगा, बल्कि कश्मीर विवाद के किसी भी शांतिपूर्ण समाधान की सारी संभावनाओं को भी खत्म कर देगा।

चीन इस सप्ताह कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों के सम्मेलन के जरिये वन बेल्ट, वन रोड (ओबीओआर) पहल को राजनीतिक रूप से बड़े पैमाने पर दुनिया के सामने प्रदर्शित करने की जुगत में लगा है। इसे देखते हुए भारत को भी अपनी एक ठोस और मजबूत नीति बनाने की जरुरत है। पिछले दो वर्षों से भारत गौर से देख रहा है कि चीन किस प्रकार ओबीओआर के लिए राजनीतिक समर्थन पाने के लिए एशियाई शक्तियों पर डोरे डालने की कोशिश करता रहा है। भारत ने बहुत बारीकी से चीन को बता दिया है कि इतने बड़े पैमाने पर एक अंतःक्षेत्रीय परियोजना के लिए पहले एक व्यापक परामर्श किए जाने की जरुरत है।
जब चीन ने भारत की इस गुजारिश को तवज्जो नहीं दी तो भारत ने जम्मू एवं कश्मीर के उन क्षेत्रों पर — जिनसे होकर चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) गुजरेगा-अपने खुद के संप्रभुतापूर्ण दावे को लेकर बिल्कुल सर्वोच्च स्तर पर अपनी चिंताएं जाहिर करनी शुरु कर दी।
भारत की संवेदनशीलता के प्रति चीन की घोर उपेक्षा को देखते हुए ऐसा लगता है कि ओबीओआर की आर्थिक क्षमता को लेकर कोई भी बहस अब अव्यावहारिक हो गई है। भारत ओबीओआर में शामिल हो या न हो, इस विषय पर तब तक कोई गंभीर बहस नहीं हो सकती जब तक भारत यह महसूस नहीं करता कि इस परियोजना द्वारा उसकी राजनीतिक संप्रभुता-जोकि शासन का मूल आधार है-का सम्मान किया जा रहा है। इसके बिल्कुल उलट, सीपीईसी (ओबीओआर का जीवन और उसकी आत्मा) ऐसे लहजे में भारत की क्षेत्रीय अखंडता को धमकी दे रहा है जो 1962 के बाद स अब तक नहीं देखा गया था।
भारत की संवेदनशीलता के प्रति चीन की घोर उपेक्षा को देखते हुए ऐसा लगता है कि ओबीओआर की आर्थिक क्षमता को लेकर कोई भी बहस अब अव्यावहारिक हो गई है।
चीन ने पाकिस्तान के साथ अपने आर्थिक गलियारे के जरिये जनसांख्यिकीय एवं भौगोलिक सीमाओं की रूपरेखा को नाटकीय तरीके से फिर से बनाने का प्रस्ताव रखा है। वह एक बेपरवाह और निर्लज्ज, संघर्षपूर्ण और नव-औपनिवेशिक टकराव के तरीके से दक्षिण एशिया पर कब्जा करने की कोशिश कर रहा है।
चीन इस व्यापक क्षेत्र में लगातार महत्वपूर्ण अचल परिसंपत्तियों पर कब्जा कर रहा है। वह दक्षिण चीन सागर में द्वीपों का निर्माण कर रहा है, पूर्वी चीन सागर में पड़ोसी देशों के क्षेत्रीय दावों को नकार रहा है और यहां तक कि मलक्का जलडमरूमध्य में भी और अधिक नियंत्रण स्थापित करने की जुगत में लगा है।
चीन ने वित्तीय संसाधनों के जरिये मध्य एशिया में अपना राजनीतिक वर्चस्व स्थापित कर लिया है। अब उसकी कोशिश सीपीईसी मार्ग के जरिये न केवल ग्वादर में बल्कि गिलगिट-बाल्टिस्तान में भी ऊपरी तौर पर तो केवल आर्थिक लेकिन गुप्त तरीके से सैन्य केंद्र और सैन्य आधार स्थापित करने की भी है।
पाकिस्तान चीन के संरक्षण एवं उसके धन के बदले उसे इस प्रकार के क्षेत्र सौंप देने को तैयार है। इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण ‘जमीनी स्तर पर तथ्यों’ को बदलने के द्वारा कश्मीर विवाद का राजनीतिक समाधान ढूंढने का प्रयास है।
अगर चीन विवादित समुद्रों में पूरे द्वीप का निर्माण करने के जरिये दक्षिण चीन सागर में कामयाब हो गया तो सीपीईसी ऐसी स्थायी या अर्ध-स्थायी परियोजनाओं का निर्माण करेगा जो गिलगिट-बाल्तिस्तान में अर्थव्यवस्था एवं समाज की प्रकृति को बदल देगी। इस क्षेत्र में चीनी तथा पंजाबियों की बाढ़ सी आ जाएगी जो न केवल इस स्थान का दोहन करेंगे बल्कि साझा लाभ के लिए इसकी सभ्यता को भी नष्ट कर डालेंगे।
सीपीईसी न केवल ‘परस्पर सम्मान’ के पंचशील के महान सिद्धांत की धज्जियां उड़ाएगा, बल्कि कश्मीर विवाद के किसी शांतिपूर्ण समाधान की सारी संभावनाओं को भी खत्म कर देगा। वास्तव में, पाकिस्तान एवं चीन यह सुझाव दे रहे हैं कि इस बात पर विचार किया जा सकता है कि जम्मू कश्मीर (और गिलगिट-बाल्तिस्तान तथा संभवतः लद्वाख) को उनकी विशिष्ट आर्थिक, राजनीतिक एवं सैन्य विशेषताओं के आधार पर अलग अलग इकाइयों में जुदा कर दिया जाए।
सीपीईसी से इस आशंका को भी बल मिल रहा है कि पाकिस्तान द्वारा दी गई आर्थिक रियायत के जरिये वे क्षेत्र भी सौंप दिए जाएंगे जिसके लिए 1963 का चीन-पाकिस्तान समझौता एक पूर्व उदाहरण है। विडंबना यह है कि विवादित क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों में चीन की भागीदारी ताईवान एवं तीसरे पक्षों के बीच एफटीए पर उसकी खुद की नीतिगत प्रकृति के खिलाफ है।
सीपीईसी में निवेश के मामले में ब्रिटेन एवं ईयू की मिलीभगत है। वास्तव में, चीन एशिया में पश्चिमी राजनीतिक लाभ को सीमित करने और भारत विरोधी उग्रवाद का प्रायोजन जारी करने के लिए यूरोप के धन का इस्तेमाल कर रहा है।
शिनजियांग प्रांत में चीन का कट्टरपंथी दृष्टिकोण इस बात का संकेत देता है कि सीपीईसी गिलगिट-बाल्तिस्तान का क्या हश्र कर सकता है। 2000 की जनगणना में कहा गया कि जहां शिनजियांग में स्थानीय उईघुर मुस्लिम आबादी 48 प्रतिशत के साथ सबसे बड़ी स्थानिक समूह बनी रही, हान चीनियों की आबादी 40 प्रतिशत तक जा पहुंची। 1950 के दशक में उईघुर की आबादी 90 प्रतिशत तक थी जिसे देखते हुए यह बदलाव आश्चर्यजनक था।
कहा जाता है कि आज हान चीनियों का इस प्रांत पर दबदबा है क्योंकि वे आर्थिक रूप से समृद्ध हैं और उनके पास सर्वश्रेष्ठ नौकरियां एवं सरकारी ओहदे हैं। उईघुर की संस्कृति एवं रिवाजों को कुचल कर रख दिया गया है। रमजान के दौरान उनके रोजा रखने पर पाबंदी है, मुस्लिम बच्चों को ‘उग्रवादी’ कहा जाता है और यहां तक कि उनकी दाढ़ी की लंबाई पर भी नजर रखी जाती है।
तो क्या गिलगिट-बाल्तिस्तान एैसे बदलावों का अगला पड़ाव है। पाकिस्तान ने उस नियम को समाप्त कर दिया है जिसके तहत गिलगिट-बाल्तिस्तान में बाहरी लोगों के जमीन खरीदने पर मनाही थी। इस शिया बहुल क्षेत्र में सुन्नियों का जबर्दस्त विस्तार हुआ है और पूरे पाकिस्तान से लोग आकर यहां बस रहे हैं। साउथ एशिया इंटेलीजेंस रिव्यू के अनुसार ‘जनवरी 2001 तक 1ः4 (बाहरियों और स्थानीय लोगों) की पुरानी आबादी का अनुपात बदल कर 3ः4 हो चुका था।’
सीपीईसी गिलगिट-बाल्तिस्तान दो सर्वोच्चवादी परियोजनाओं: वहाबीवाद एवं हान-वाद के संघर्षपूर्ण निकट प्रभावों का मिलन स्थल बना देगा। इन दोनो ही संप्रदायों का उद्वेश्य समुदायों का पूर्ण सामाजिक वर्चस्व कायम करना है।
यह न केवल क्षेत्र की जनसांख्यकीय संरचना को बदल कर रख देगा बल्कि गिलगिट-बाल्तिस्तान को एक स्थानिक, धार्मिक एवं सांप्रदायिक संघर्ष के एक विस्फोटक स्थिति वाली जगह में भी तबदील कर देगा।
और अंत में, संप्रभुता की चिंताओं के प्र्रति चीन की निर्लज्जतापूर्ण उपेक्षा ने भारत के साथ उसके द्विपक्षीय संबंधों की मूल आत्मा को समाप्त कर दिया है, जो लंबे समय से गैर-हस्तक्षेप, क्षेत्रीय अखंडता एवं विवादों के शांतिपूर्ण समाधान के सिद्धातों के प्रति सम्मान का आधार था। अब अगर वह आधार ही नहीं रहा तो भारतीय नीति निर्माताओं को निश्चित रूप से गंभीरतापूर्वक चीन के नेतृत्व वाली बहुपक्षीय पहलों में शामिल होने के लाभों पर फिर से विचार करना चाहिए। यही नहीं, कुछ लोग ब्रिक्स सहयोग को आगे बढ़ाने की राजनीतिक व्यावहार्यता पर भी सवाल उठा सकते हैं।
सीपीईसी भारत पर गिलगिट, तिब्बत, शिनजियांग एवं भीतरी मंगोलिया के उत्पीडि़त लोगों के लिए अप्रत्यक्ष समर्थन देने का घरेलू दबाव पैदा करेगा। यह सीपीईसी के रास्ते के एक अन्य छोटे स्टेशन बलूचिस्तान में ऐसे मुद्वों को रेखांकित करने के लिए अधिक प्रत्यक्ष हस्तक्षेप कर सकता है। जहां भारत की 2.5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था किसी भी प्रत्युत्तर के अवसर को सीमित कर देती है, ये कदम भविष्य के लिए एक मानदंड के रूप में कार्य करेंगे।
वर्तमान में, यह हो सकता है कि भारत उस सीमा तक जाकर प्रतिक्रिया न जताए अर्थात अपनी संप्रभुता के उल्लंघन का जवाब इसी अनुपात में चीन की संप्रभुता का उल्लंघन करने के रूप में न दे। लेकिन चीन के नीति निर्माताओं को निश्चित रूप से भारत को उसकी क्षमता और उसके धैर्य की परीक्षा लेने के लिए विवश नहीं करना चाहिए जिससे कि वह वन बेल्ट, वन रोड ( ओबीओआर) की राह में भीषण बाधाएं न खड़ी कर दे।
यह लेख मूल रूप से टाइम्स ऑफ इंडिया में छपा था।