Samir Saran
बालाकोट के सामरिक निहितार्थों की जांच करने वाले समस्त आयोगों और रिपोर्टों के बीच, यह महत्वपूर्ण है कि कथानकों और सूचना के प्रवाह के प्रश्न पर पर्याप्त ध्यान दिया जाए।

हालाँकि बालाकोट हवाई हमले का गुबार थम चुका है, लेकिन पाकिस्तान और भारत में जन भावनाओं का ज्वार थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। जनमत को उकसाने के पीछे काफी हद तक पुराने और नए दोनों तरह के मीडिया की भूमिका जिम्मेदार है। यूं तो वियतनाम युद्ध टेलीविजन पर प्रसारित होने वाला पहला युद्ध था, लेकिन उसकी पहुंच सीमित अमेरिकी टीवी सेटों तक ही थी, भारत में आज हम जो देख रहे हैं, उसकी तुलना बड़ी आसानी से अभूतपूर्व ग्लोबल टेलिविजन कवरेज वाले 1990-91 के खाड़ी युद्ध की कवरेज से की जा सकती है। उस समय, और अब भी, हांफते हुए लोग मिसाइल हमलों और बटालियनों की गतिविधियों की प्राइम-टाइम रिपोर्टिंग से चिपके हुए हैं।
आज, भले ही समय, कर्ता-धर्ता और प्रौद्योगिकियों का स्वरूप बदल चुका है। 1990-91, और उसके बाद दोबारा 2003 में, अमेरिकी मीडिया युद्ध को दुनिया भर के लोगों के घरों की बैठकों तक ले गया था। 2019 में, इंटरनेट पर सक्रिय उपयोगकर्ताओं के ग्लोबल नेटवर्क इसे हर एक स्मार्ट फोन तक ले आए हैं। प्राइम टाइम अब महज नौ बजे के समाचार नहीं हैं। अब जब कभी भी ‘सोशल मीडिया का प्रभावशाली शख्स’ वायरल सूचनाएं प्रसारित करता है, तो प्राइम टाइम होता है। इसके बावजूद मीडिया, राजनीति, सत्ता और युद्ध के बीच संबंध हमेशा की तरह परस्पर-निर्भर रहे हैं। और हमारे सार्वजनिक क्षेत्र में मौजूदा समय में मच रहा शोर-गुल हमें इस बात पर सवाल उठाने का बिल्कुल मुनासिब मौका देता है कि क्या बदल चुका है और क्या नहीं।
मीडिया हमेशा से मिलीभगत करके खुद को सरकार द्वारा शामिल किये जाने की इजाजत देता रहा है। उसने विदेश नीति और युद्ध के बारे में सरकार के कथानकों के लिए बार-बार अवसर उपलब्ध कराया है।
नोम चोमस्की और एडवर्ड हरमन ने अपनी अत्यंत प्रभावशाली पुस्तक ‘मैन्युफैक्चरिंग कन्सेंट’ में दलील दी है कि “आधिकारिक सूत्रों” और बीट रिपोटर्स के बीच हमेशा से सहजीवी संबंध रहे हैं। बीट रिपोर्टर्स की पहुंच जहां महत्वपूर्ण लीक्स और ब्रेकिंग न्यूज तक होती है, वहीं आधिकारिक सूत्र बिना कोई अतिरिक्त प्रयास किए एजेंडा सेट कर सकते हैं।
जब दर्शकों की संख्या पर व्यक्तियों का अधिकार हो और प्रभाव इतना व्यापक या अनेक परम्परागत न्यूज प्लेटफॉर्म्स से भी बड़ा हो, तो वे गवर्नमेंट लीक्स के सहज माध्यम बन जाते हैं। माध्यम भले ही बदल चुके हैं, लेकिन प्रेरणा वही है।
दूसरा, सामरिक संचार या स्ट्रेटेजिक कम्युनिकेशन्स की प्रकृति में महत्वपूर्ण बदलाव आ चुका है। 20वीं सदी में, मीडिया और दूरसंचार के बुनियादी ढांचों पर पूरी तरह अमेरिका का एकाधिकार था। उसका समाज बिना किसी तरह की प्रतिस्पर्धा के वैश्विक स्तर पर भावनाओं को प्रभावित कर सकता था। उन्होंने तय किया था कि दुनिया पहले इराक युद्ध (1990-91) को किस नजर से देखे। आज, किसी भी देश, एजेंसी या व्यक्ति के पास ऐसा एकाधिकार नहीं है। सूचना संचार प्रौद्योगिकियों के प्रसार ने कथानक का लोकतांत्रिकरण कर दिया है। अब हर एक व्यक्ति मीडिया है। हर एक वीडियो, ब्लॉग या फोटो घटनाओं का रुख मोड़ सकता है और मोड़ेगा।
युद्ध के दौर में, वास्तविक घटनाक्रमों के बारे में सरकार के लिए आवश्यक है कि वह फुर्ती से और पहल करते हुए प्रतिक्रिया व्यक्त करे। वह कथानक निर्धारित करे और तो और चौबीसों घंटे के समाचारों में आगे रहे। सभी माध्यमों पर प्रसारित किए जा रहे संदेशों और अर्थों में तालमेल होना चाहिए। बालाकोट के हमलों के बाद, यह स्पष्ट है कि भारत सरकार ने ऐसा ही करने का प्रयास किया, जबकि पाकिस्तान सरकार ने मीडिया पर परोसे जा रहे ‘शासन कला’ के प्रभामंडल के भीतर अपनी दुर्भावनापूर्ण कहानियों फैलाने के लिए यहां उपजे खालीपन का फायदा उठाया।
तीसरा, दक्षिण एशिया ‘शांति चाहने वालों’ की पहचान अब नियमित रूप से सरकार और तथाकथित जनता के नए शत्रु के तौर पर कर रहा है। जिस तरह 20वीं सदी के अधिकांश भाग में साम्यवाद अमेरिकी मीडिया के लिए सीमा रेखा रहा, उसी तरह उपमहाद्वीप में शांति की वकालत करने वाले दक्षिण एशिया क्षेत्र में सीमा रेखा जैसे दिखाई दे रहे हैं। भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में, हमने कुछ ‘अलग तरह के’ लोग देखे हैं, जो शांतिपूर्ण विकल्पों और समाधानों की पेशकश कर रहे हैं। चोमस्की और हरमन ने लिखा है कि “साम्यवाद-विरोध” की अवधारणा बड़ी आसानी से मतदाताओं को जुटा सकती है, क्येांकि यह अवधारणा अस्पष्ट है (और) इसका इस्तेमाल किसी के भी खिलाफ किया जा सकता है, जबकि साम्यवाद-विरोधी “कुछ भी कर सकता है और कुछ भी कह सकता है” वह भी बिना निगरानी के।
यही मूलभूत आधार वाक्य आज भारत और पाकिस्तान दोनों जगह फिट बैठ रहा है। और इसको केवल उन्हीं लोगों ने बिगाड़ा हैं, जो नैतिकता और जिम्मेदारी के बारे में सोचकर खुद को परेशान करने की जगह विवश समर्थकों को इकट्ठा करना ज्यादा पसंद करते हैं।
यूं तो शांति का निश्चित तौर पर दूर-दूर तक कोई नामो-निशां नहीं है — लेकिन हमारे मीडिया संस्थान और सोशल मीडिया के योद्धाओं ने शांति की संभावनाओं के बारे में विचार तक करना प्रामाणिक अपराध बना दिया है।
चौथा, सामाजिक मीडिया के दौर में, आवश्यकता के अनुरूप या टेलर्ड मैसेज बेअसर हो चुके हैं। उदाहरण के लिए, हॉलीवुड की सफलता का नाता दर्शकों के बड़े समूहों को साथ जोड़ने के लिए उसके द्वारा अत्याधुनिक कम्युनिकेशन्स का इस्तेमाल करने की योग्यता से भी जुड़ा है। दूसरे शब्दों में कहें, तो हॉलीवुड की कहानियों ने बड़ी तादाद में लोगों को आकर्षित किया है। प्रभावी संदेशों में भी ऐसा ही गुण होना चाहिए वे भी अनेकार्थी होने चाहिए।
अक्सर, राजनीतिज्ञ राजनीतिक ताकत हासिल करने की कोशिश में अपने सीमित निर्वाचक वर्गों को आकर्षित करना चाहते हैं। निश्चित तौर पर, जो भी इस बात पर यकीन करता है कि यह लोकतांत्रिक राजनीतिक का सहज परिणाम नहीं है, वह भोला-भाला है। हालांकि, भारतीय सरकारों और राजनीतिज्ञों (विपक्ष में बैठे राजनीतिज्ञों सहित) को यह सीख लेना चाहिए कि सार्वभौमिक स्तर और अपने मूलभूत क्षेत्र में किस तरह संवाद करें। यदि ये दोनों, खासतौर पर संघर्ष के दौरान, एक दूसरे के विपरीत हैं, तो यह राष्ट्रीय ब्रांड है और हित के साथ बहुत ज्यादा समझौता किया गया है। या स्ट्रेटेजिक कम्युनिकेशन्स उभरता हुआ क्षेत्र है और भारत में अनेक लोगों के लिए अच्छा होगा कि इसकी नई जटिलताओं को समझने के लिए वह मूलभूत स्तर से शुरूआत करें।
अंत में, युद्धकाल के दौरान, खामोशी कोई विकल्प नहीं है — लेकिन डींगे हांकना भी कोई विकल्प नहीं है। उदाहरण के लिए, यह बेहद निराशाजनक है कि बहुत से लोग भारत की आधिकारिक प्रेस ब्रीफिंग्स के दौरान दिए गए साधारण संदेशों में अपने संदेश और अर्थ शामिल कर रहे हैं। अनेकार्थी संदेश सहज तौर पर अटकलों और छल-कपट में उलझ जाएंगे। संघर्ष के दौरान संचार या कम्युनिकेशन्स में स्पष्टता और एकरूपता होना बहुत आवश्यक है। किसी भी तरह की अस्पष्टता पर रोक होनी चाहिए, क्योंकि आसमान में मौजूद आंखें यानी निगरानी के लिए लगाए गए कैमरे और सेल-फोन के कैमरे सारा हाल बयां कर देंगे।
बालाकोट के सामरिक निहितार्थों की जांच करने वाले समस्त आयोगों और रिपोर्टों के बीच, यह महत्वपूर्ण है कि कथानकों और सूचना के प्रवाह के प्रश्न पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाए। स्टीफन ल्यूक्स ने पॉवर: अ रेडिकल व्यू में तर्क दिया है कि “शक्ति का सबसे कपट भरा इस्तेमाल” यह है कि “लोगों को.. अपनी धारणाओं, अनुभूतियों को आकार देकर तकलीफ उठाने से रोका जाए और उनकी प्राथमिकताएं ऐसी बनाई जाएं कि वे मौजूदा व्यवस्था में अपनी भूमिका को मंजूर कर लें।” इस बात पर हैरानी हो सकती है कि अगर बेअसर राजनीतिक और सरकारी संचार या कम्युनिकेशन्स, मीडिया के गरजने वाले एंकर और सोशल मीडिया के तीखे प्रभावकर्ताओं का मिलाजुला असर अगर ऐसा न हो। क्या हम, एक समाज के नाते, अपने इस पश्चिमी पड़ोसी के साथ मौजदू जोखिमों और अवसरों के बारे में तर्कसंगत रूप से विचार करने में समर्थ हैं? या हम उन्हें जाने बगैर ही अपने ही बनाए कथानकों से लाचार हैं?
इसलिए, यहां कुछ अहम सवाल हैं, जिनका हल जरूरी है। इस सूचना युग में सरकार को अपनी विश्वासनीयता और प्रामाणिकता कैसे बरकरार रखनी चाहिए? तेजी से घटित हो रहे भू-राजनीतिक घटनाक्रमों के बारे में सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स को किस तरह प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए? संघर्ष के दौर में मीडिया को किस तरह की नैतिकता और उत्तरदायित्वों का पालन करना चाहिए? और शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नए मीडिया की भूमिका क्या है: ऐसे व्यक्ति जो इस प्रभाव और ताकत का उपयोग करते हैं? लोकतंत्र के रूप में हमारी परिपक्वता के लिए इन सवालों के जवाब महत्वपूर्ण हैं।
ये लेखक के निजी विचार हैं।